Monday 17 March 2014

संस्कारका क्या अर्थ है वे निर्माण कॆसे होते हैं ?


संस्कारका क्या अर्थ है ? वे निर्माण कॆसे होते हैं ?

व्या
वहारिक जीवनमें हम संस्कार इस शब्दका सम्यव् कृति अर्थात् अच्छे आचार, विचार एवं कृति इस अर्थसे प्रतीत करते हैं । अध्यात्मशास्त्रमें संस्कारका अर्थ चित्तमें अथवा अंतर्मनमें अंकित हुए विचार ऐसा होता है । अच्छी बातोंकी तरह बुरी बातोंके भी संस्कार होते हैं, 

उदा. ईश्वरका नाम लेनेकी तरह ही गालियां देनेका भी संस्कार होता है ।

हमारा शरीर, ज्ञानेंद्रियं, कर्मेंद्रियं, मन, बुद्धि एवं अहंकारकी प्रत्येक कृतिका एवं वृत्तिका अंतर्मनमें संस्कार होता है । इनमेंसे अधिकांश विचार कुछ पलमें अथवा मिनटोंमें ही नष्ट होते हैं, 

उदा. सडकसे जाते समय हम अनेक लोग देखते हैं । रेलगाडीसे जाते समय हम अनेक शहर, गांव अथवा जंगलके दृश्य देखते हैं । पराए लोगोंके घरमें एवं रेलगाडीमें बाजूमें बैठे आदमीके साथ अनावश्यक संवाद करते हैं । भीडमें हमें अनेक लोंगोंका अथवा वस्तुओंका स्पर्श होता है । भीडमें हम नाकद्वारा अनेक प्रकारके सुगंधका एवं दुर्गंधीका अनेक बार अनुभव लेते हैं । अखबारमें अंतर्भूत अधिकतर निरर्थक समाचार हम पढते हैं; परंतु कुछ पलमें ही अथवा कुछ मिनटोंमें ही ये विचार हमेशाके लिए मिट जाते हैं एवं हमें उसकी याद भी नहीं रहतीr; परंतु हमारा देह, इंद्रियं, मन, बुद्धि, अहंकारसे संबंधित होनेके कारण बाह्य वस्तु, व्यqिक्त, प्रसंग अथवा घटना हमारी यादमें अधिकांश समय, कुछ घंटे अथवा जीवनभर भी रहती है । ये यादें चित्तमें अथवा अंतर्मनमें अंकित हुए विचारोंकोें कुछ काल अथवा जन्मजन्मांतरमें चित्तपर रहनेवाले विचारोंको संस्कार कहते हैं ।

देह, इंद्रियं, मन, बुद्धि एवं अहंकारसे संबंधित रहनेवाली कौनसी व्यक्ति, वस्तु, प्रसंग, घटना एवं अंतःकरणमें विद्यमान कौनसे विचार, इच्छा, वासना, अपेक्षा तथा निर्णयके संस्कार बनते हैं, यह नीचे स्पष्ट किया है ।


१. जिसके कारण हमें सुख अथवा दुख होता है । सुख उत्पन्न करनेवाली वस्तु एवं देनेवाली व्यक्ति हमें अपनी लगती है और दुख देनेवाली वस्तु एवं व्यक्ति इनके विचार करना भी पसंद नहीं करते । बुढापेमें व्याधीसे पिडीत दुख देनेवाला देह भी पसंद नहीं करते ।


२. जो वस्तु, व्यक्ति, प्रसंग, घटना एवं विचारसे हमारी इच्छा तथा वासना संबंधित है ।


३. जो वस्तु अथवा व्यक्ति जिससे काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर संबंधित हैं ।


४. जिससे हमारा लाभ एवं हानि संबंधित हैं ।


५. जो वस्तु अथवा व्यक्ति हमें प्रिय एवं अप्रिय है ।

सडकसे जाते समय हम अनेक लोग देखते हैें; परंतु दोस्त अथवा दुश्मन मिलनेसे उसकी याद आती है ।

६. जिससे हम लेन-देन करते हैं । किसीसे उधार (कर्ज) लेनेसे अथवा किसीको उधार (कर्ज) देनेसे ।


७. जिससे हम तुलना करते हैं ।


८. जो जो वस्तु अथवा व्यक्ति एवं स्वयंका देह, इंद्रियं, मन, बुद्धि इन सबसे ‘मैं एवं मेरा’ ऐसा संबंध प्रतीत करते हैं । इसके अंतर्गत मेरा घर, मेरी पत्नि, बच्चे, रिश्तेदार, पडोसीr, दोस्त एवं दुश्मन भी आते हैं । उसी प्रकार मेरी पदवीr, संपत्ति, सत्ता, सौंदर्य, मेरी आंखे, मेरे विचार, मेरा ज्ञान इत्यादि सबकुछ आता हैं ।


९. जो जो वस्तु अथवा व्यक्ति जिनके प्रति आसक्ति, माया, ममत्व निर्माण होता है ।


१०. जो जो वस्तु अथवा व्यक्ति जिससे कुछ अपेक्षा रहती है ।


११. जो वस्तु, स्थान अथवा व्यक्तिके प्रति हमें आदर होता है अथवा तिरस्कार होता है (घृणा वाटते)। पिताका अथवा देवताका छायाचित्र, हिंदुओंको काशी, मुसलमानोंको मक्का, खिश्चनोंको जेरुसलेम यह तीर्थक्षेत्र आदरणीय प्रतीत होती है । शिक्षक, संत, गुरुके प्रति आदर होता है । इसके विरूद्ध दुष्ट व्यक्ति, भ्रष्टाचारी व्यक्तिओंके प्रति मनमें तिरस्कार निर्माण होता है ।


१२. हमारी निंदा एवं स्तुति करनेवाली व्यक्ति ।


१३. वर्तमान कालकी ही नहीं, तो भूतकालसे संबधित कथाके रुपमें सुनी हुई साधु, संत, अवतार एवं राक्षस, पिशाच(भुत), दुष्ट व्यक्तिओंकी भी याद रहती हैं एवं संस्कार होते हैं । लगातार एकही बात दोहरानेसे उसका रूपांतर संस्कारमें होता हैं ।


इसका अर्थ देह, ज्ञानेंद्रियं, कर्मेंद्रियं, मन, बुद्धि एवं अहंकारको पोषक तथा मारक वस्तु, व्यक्ति, प्रसंग एवं घटनाओंके संस्कार बनते हैं । वैसेही देह, ज्ञानेंद्रियं, कर्मेंद्रियं, मन, बुद्धि एवं अहंकारकी लगातार होनेवाली कृतिओंका एवं वृत्तिओंका भी परिवर्तन संस्कारमें होता हैं । ये संस्कार चित्तमें अर्थात् अंतर्मनमें विद्यमान उपरके स्तरमें (ेल्ंम्दहेम्ग्दल्े स्ग्ह्) अथवा अंतर्गत स्तरमें (ल्हम्दहेम्ग्दल्े स्ग्ह्) संग्रहित किए जाते हैं । ये संस्कार अर्थात् पहलेके सुख, दुख, राग, द्वेष, विविध मनोवृत्तीrसे संबधित एवं चित्तमें अर्थात् अंतर्मनमें संग्रहित यादें ।


हमारी सर्व कृति, इच्छा, वासना, विचार, अपेक्षा, आकांक्षा, भावना इत्यादि सर्व वृत्तिओेंके एवं कृतिओंके संस्कार बनते हैंैं एवं पुन: इन संस्कारोंका इच्छा, वासना, विचार, राग-द्वेष इत्यादिमें रूपांतर होता है । यह शृंखला लगातार चलती ही रहती है ।



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अलख निरंजन्


गुरू गोरक्षनाथ जी को आदेश

नाथ सम्प्रदाय








NAV NAATH

नाथ सम्प्रदाय के अनुयायी मुख्यतः बारह शाखाओं में विभक्त हैं, जिसे बारह पंथ कहते हैं । इन बारह पंथों के कारण नाथ सम्प्रदाय को ‘बारह-पंथी’ योगी भी कहा जाता है । प्रत्येक पंथ का एक-एक विशेष स्थान है, जिसे नाथ लोग अपना पुण्य क्षेत्र मानते हैं । प्रत्येक पंथ एक पौराणिक देवता अथवा सिद्ध योगी को अपना आदि प्रवर्तक मानता है । नाथ सम्प्रदाय के बारह पंथों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है -

१॰ सत्यनाथ पंथ - इसके मूल प्रवर्तक सत्यनाथ (भगवान् ब्रह्माजी) थे । इसीलिये सत्यनाथी पंथ के अनुयाययियों को “ब्रह्मा के योगी” भी कहते हैं । इस पंथ का प्रधान पीठ उड़ीसा प्रदेश का पाताल भुवनेश्वर स्थान है ।

२॰ धर्मनाथ पंथ – इस पंथ के मूल प्रवर्तक धर्मराज युधिष्ठिर माने जाते हैं । धर्मनाथ पंथ का मुख्य पीठ नेपाल राष्ट्र का दुल्लुदेलक स्थान है । भारत में इसका पीठ कच्छ प्रदेश धिनोधर स्थान पर हैं ।

३॰ राम पंथ - इस पंथ के मूल प्रवर्तक भगवान् श्रीरामचन्द्र माने गये हैं । इनका प्रधान पीठ उत्तर-प्रदेश का गोरखपुर स्थान है ।

४॰ नाटेश्वरी पंथ अथवा लक्ष्मणनाथ पंथ –इस पंथ के मूल प्रवर्तक लक्ष्मणजी माने जाते हैं । इस पंथ का मुख्य पीठ पंजाब प्रांत का गोरखटिल्ला (झेलम) स्थान है । इस पंथ का सम्बन्ध दरियानाथ व तुलनाथ पंथ से भी बताया जाता है ।

५॰ कंथड़ पंथ - कंथड़ पंथ के मूल प्रवर्तक गणेशजी कहे गये हैं । इसका प्रधान पीठ कच्छ प्रदेश का मानफरा स्थान है ।

६॰ कपिलानी पंथ - इस पंथ को गढ़वाल के राजा अजयपाल ने चलाया । इस पंथ के प्रधान प्रवर्तक कपिल मुनिजी बताये गये हैं । कपिलानी पंथ का प्रधान पीठ बंगाल प्रदेश का गंगासागर स्थान है । कलकत्ते (कोलकाता) के पास दमदम गोरखवंशी भी इनका एक मुख्य पीठ है ।

७॰ वैराग्य पंथ - इस पंथ के मूल प्रवर्तक भर्तृहरिजी हैं । वैराग्य पंथ का प्रधान पीठ राजस्थान प्रदेश के नागौर में राताढुंढा स्थान है ।इस पंथ का सम्बन्ध भोतंगनाथी पंथ से बताया जाता है ।

८॰ माननाथ पंथ - इनकी संख्या १० है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक राजा गोपीचन्द्रजी माने गये हैं । इस समय माननाथ पंथ का पीठ राजस्थान प्रदेश का जोधपुर महा-मन्दिर नामक स्थान बताया गया है ।

९॰ आई पंथ - इस पंथ की मूल प्रवर्तिका गुरु गोरखनाथ की शिष्या भगवती विमला देवी हैं । आई पंथ का मुख्य पीठ बंगाल प्रदेश के दिनाजपुर जिले में जोगी गुफा या गोरखकुई नामक स्थान हैं । इनका एक पीठ हरिद्वार में भी बताया जाता है । इस पंथ का सम्बन्ध घोड़ा चौली से भी समझा जाता है ।

१०॰ पागल पंथ – इस पंथ के मूल प्रवर्तक श्री चौरंगीनाथ थे । जो पूरन भगत के नाम से भी प्रसिद्ध हैं । इसका मुख्य पीठ पंजाब-हरियाणा का अबोहर स्थान है ।

११॰ ध्वजनाथ पंथ - इस पंथ के मूल प्रवर्तक हनुमानजी माने जाते हैं । इसका प्रधान पीठ मगरा-क्षेत्र में मकरध्वज हनुमान स्थान है !
१२॰ गंगानाथ पंथ - इस पंथ के मूल प्रवर्तक श्री भीष्म पितामह माने जाते हैं । इसका मुख्य पीठ पंजाब में गुरुदासपुर जिले का जखबार स्थान है ।

कालान्तर में नाथ सम्प्रदाय के इन बारह पंथों में छह पंथ और जुड़े - १॰ रावल (संख्या-७१), २॰ पंक (पंख), ३॰ वन, ४॰ कंठर पंथी, ५॰ गोपाल पंथ तथा ६॰ हेठ नाथी ।

इस प्रकार कुल बारह-अठारह पंथ कहलाते हैं । बाद में अनेक पंथ जुड़ते गये, ये सभी बारह-अठारह पंथों की उपशाखायें अथवा उप-पंथ है । कुछ के नाम इस प्रकार हैं - अर्द्धनारी, अमरनाथ, अमापंथी। उदयनाथी, कायिकनाथी, काममज, काषाय, गैनीनाथ, चर्पटनाथी, तारकनाथी, निरंजन नाथी, नायरी, पायलनाथी, पाव पंथ, फिल नाथी, भृंगनाथ आदि



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